Friday, April 25, 2014

हिन्दी की वर्णमाला और सामान्य गलतियाँ। Hindi varnamala, vyakaran, and common mistakes

हिन्दी वर्णमाला

देवनागरी लिपि आधारित हिन्दी वर्णमाला में निम्नलिखित ५२ अक्षर होते हैं।

स्वर :-

अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अः ऋ ॠ ऌ ॡ

व्यंजन :-

क ख ग घ ङ
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण (ड़, ढ़)
त थ द ध न
प फ ब भ म
य र ल व
स श ष ह
क्ष त्र ज्ञ

देवनागरी लिपि में संस्कृत, मराठी, कोंकणी, नेपाली, मैथिली आदि भाषाएं भी लिखी जाती है। हिंदी में ॠ ऌ ॡ का प्रयोग प्रायः नहीं होता।

हिन्दी वर्ण की परिभाषा :-
हिन्दी भाषा में प्रयुक्त सबसे छोटी ध्वनि वर्ण कहलाती है। जैसे

अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, क्, ख् आदि।

हिन्दी वर्णमाला :-
वर्णों के समुदाय को ही वर्णमाला कहते हैं। हिन्दी वर्णमाला में ४४ वर्ण हैं। उच्चारण और प्रयोग के आधार पर हिन्दी वर्णमाला के दो भेद किए गए हैं।

१. स्वर।
२. व्यंजन।

१. स्वर :-

जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र रूप से होता हो और जो व्यंजनों के उच्चारण में सहायक हों वे स्वर कहलाते है। ये संख्या में ग्यारह हैं।

अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।

उच्चारण के समय की दृष्टि से स्वर के तीन भेद किए गए हैं।

१.१. ह्रस्व स्वर।
१.२. दीर्घ स्वर।
१.३. प्लुत स्वर।

१.१. ह्रस्व स्वर :-

जिन स्वरों के उच्चारण में कम-से-कम समय लगता हैं उन्हें ह्रस्व स्वर कहते हैं। ये संख्या में चार हैं।

अ, इ, उ, ऋ।

इन्हें मूल स्वर भी कहते हैं।

१.२. दीर्घ स्वर :-

जिन स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वरों से दुगुना समय लगता है उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। ये हिन्दी में सात हैं

आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ।

विशेष - दीर्घ स्वरों को ह्रस्व स्वरों का दीर्घ रूप नहीं समझना चाहिए। यहां दीर्घ शब्द का प्रयोग उच्चारण में लगने वाले समय को आधार मानकर किया गया है।

१.३. प्लुत स्वर :-

जिन स्वरों के उच्चारण में दीर्घ स्वरों से भी अधिक समय लगता है उन्हें प्लुत स्वर कहते हैं। प्रायः इनका प्रयोग दूर से बुलाने में किया जाता है।

मात्राएँ :-

स्वरों के बदले हुए स्वरूप को मात्रा कहते हैं स्वरों की मात्राएँ निम्नलिखित हैं।

स्वर मात्राएँ :-

शब्द अ × - कम
आ ा - काम
इ ि - किसलय
ई ी - खीर
उ ु - गुलाब
ऊ ू - भूल
ऋ ृ - तृण
ए े - केश
ऐ ै - है
ओ ो - चोर
औ ौ - चौखट

अ वर्ण (स्वर) की कोई मात्रा नहीं होती। व्यंजनों का अपना स्वरूप निम्नलिखित हैं।

क् च् छ् ज् झ् त् थ् ध् आदि।

अ लगने पर व्यंजनों के नीचे का (हल) चिह्न हट जाता है। तब ये इस प्रकार लिखे जाते हैं।

क च छ ज झ त थ ध आदि।

२. व्यंजन :-

जिन वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं। अर्थात व्यंजन बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। ये संख्या में ३३ हैं। इसके निम्नलिखित तीन भेद हैं।

२.१. स्पर्श
२.२. अंतःस्थ
२.३. ऊष्म

२.१. स्पर्श :-
इन्हें पाँच वर्गों में रखा गया है और हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग का नाम पहले वर्ग के अनुसार रखा गया है। जैसे

कवर्ग- क् ख् ग् घ् ड़्
चवर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्
टवर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् (ड़् ढ्)
तवर्ग- त् थ् द् ध् न्
पवर्ग- प् फ् ब् भ् म्

२.२. अंतःस्थ :-

यह निम्नलिखित चार हैं।

य् र् ल् व्

२.३. ऊष्म :-

ये निम्नलिखित चार हैं।

श् ष् स् ह्

संयुक्त व्यंजन :-

जहाँ भी दो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिल जाते हैं वे संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं, किन्तु देवनागरी लिपि में संयोग के बाद रूप परिवर्तन हो जाने के कारण इन तीन को गिनाया गया है। ये दो-दो व्यंजनों से मिलकर बने हैं। जैसे

क्ष=क्+ष अक्षर
त्र=त्+र नक्षत्र
ज्ञ=ज्+ञ ज्ञान

कुछ लोग क्ष् त्र् और ज्ञ् को भी हिन्दी वर्णमाला में गिनते हैं, पर ये संयुक्त व्यंजन हैं। अतः इन्हें वर्णमाला में गिनना उचित प्रतीत नहीं होता।

अनुस्वार :-

इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है। इसका चिन्ह (ं) है। जैसे

सम्भव=संभव, सञ्जय=संजय, गड़्गा=गंगा।

विसर्ग :-

इसका उच्चारण ह् के समान होता है। इसका चिह्न (:) है। जैसे

अतः, प्रातः।

चंद्रबिंदु :-

जब किसी स्वर का उच्चारण नासिका और मुख दोनों से किया जाता है तब उसके ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगा दिया जाता है। यह अनुनासिक कहलाता है। जैसे

हँसना, आँख।

लेकिन आजकल आधुनिक पत्रकारिता में सुविधा और स्थान की दृष्टि से चंद्रबिन्दु को लगभग हटा दिया गया है। लेकिन भाषा की शुद्धता की दृष्टि से चन्द्र बिन्दु लगाए जाने चाहिए।

हिन्दी वर्णमाला में ११ स्वर तथा ३३ व्यंजन गिनाए जाते हैं, परन्तु इनमें ड़्, ढ़्, अं, तथा अः जोड़ने पर हिन्दी के वर्णों की कुल संख्या ४८ हो जाती है।

हलंत :-

जब कभी व्यंजन का प्रयोग स्वर से रहित किया जाता है तब उसके नीचे एक तिरछी रेखा (्) लगा दी जाती है। यह रेखा हल कहलाती है। हलयुक्त व्यंजन हलंत वर्ण कहलाता है। जैसे

सतत्।

वर्णों के उच्चारण स्थान :-

मुख के जिस भाग से जिस वर्ण का उच्चारण होता है उसे उस वर्ण का उच्चारण स्थान कहते हैं।

उच्चारण स्थान तालिका :-

क्रम वर्ण उच्चारण श्रेणी।

१. अ आ क् ख् ग् घ् ड़् ह् - विसर्ग कंठ और जीभ का निचला भाग कंठस्थ
२. इ ई च् छ् ज् झ् ञ् य् श - तालु और जीभ तालव्य
३. ऋ ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष् - मूर्धा और जीभ मूर्धन्य
४. त् थ् द् ध् न् ल् स् - दाँत और जीभ दंत्य
५. उ ऊ प् फ् ब् भ् म - दोनों होंठ ओष्ठ्य
६. ए ऐ - कंठ तालु और जीभ कंठतालव्य
७. ओ औ - दाँत जीभ और होंठ कंठोष्ठ्य
८. व् - दाँत जीभ और होंठ दंतोष्ठ्य

विवादास्पद वर्तनियाँ

की और कि में अंतर :-


कि और की दोनों अलग अलग हैं। इनका प्रयोग भी अलग अलग स्थानों पर होता है। एक के स्थान पर दूसरे का प्रयोग ठीक नहीं समझा जाता है।

कि दो वाक्यों को जोड़ने का काम करता है। जैसे

उसने कहा कि कल वह नहीं आएगा। वह इतना हँसा कि गिर गया। यह माना जाता है कि कॉफ़ी का पौधा सबसे पहले ६०० ईस्वी में इथियोपिया के कफ़ा प्रांत में खोजा गया था।

की संबंध बताने के काम आता है। जैसे

राम की किताब, सर्दी की ऋतु, सम्मान की बात, वार्ता की कड़ी।

ये तथा यी के स्थान पर ए तथा ई :-

आजकल विभिन्न शब्दों में ये तथा यी के स्थान पर तथा का प्रयोग भी किया जाता है। उदाहरण

गयी तथा गई, आयेगा तथा आएगा आदि।

आधुनिक हिंदी में दिखायें, हटायें आदि के स्थान पर दिखाएँ, हटाएँ आदि का प्रयोग होता है। यदि ये और एक साथ अंत में आएँ जैसे किये गए हैं तो पहले स्थान पर ये और दूसरे स्थान पर का प्रयोग होता है।

परन्तु संस्कृत से हिंदी में आने वाले शब्दों (स्थायी, व्यवसायी, दायित्व आदि) में '' के स्थान पर '' या '' का प्रयोग अमान्य है।

कीजिए या करें :-

सामान्य रूप से लिखित निर्देश के लिए करें, जाएँ, पढें, हटाएँ, सहेजें इत्यादि का प्रयोग होता है। कीजिए, जाइए, पढ़िए के प्रयोग व्यक्तिगत हैं और अधिकतर एकवचन के रूप में प्रयुक्त होते हैं।

जैसे कि, जो कि :-

यह दोनों ही पद बातचीत में बहुत प्रयोग होते हैं और इन्हें सामान्य रूप से गलत नहीं समझा जाता है, लेकिन लिखते समय जैसे कि और जो कि दोनों ही गलत समझे जाते हैं। अतः जैसे और जो के बाद कि शब्द का प्रयोग ठीक नहीं है।

विराम चिन्ह :-

सभी विराम चिन्हों जैसे विराम, अर्ध विराम, प्रश्न वाचक चिह्न आदि के पहले खाली जगह छोड़ना गलत है। खाली जगह विराम चिन्हों के बाद छोड़नी चाहिए। हिन्दी में किसी भी विराम चिह्न यथा पूर्णविराम, प्रश्नचिह्न आदि से पहले रिक्त स्थान नहीं आता। आजकल कई मुद्रित पुस्तकों, पत्रिकाओं में ऐसा होने के कारण लोग ऐसा ही टंकित करने लगते हैं जो कि गलत है। किसी भी विराम चिन्ह से पहले रिक्त स्थान नहीं आना चाहिये।

हिन्दी में लिखते समय देवनागरी लिपि के पूर्ण विराम (।) चिन्ह की जगह अंग्रेजी के full stop (.) का प्रयोग करना गलत है।

समुच्चय बोधक और संबंध बोधक शब्दों का प्रयोग :-

संबंध बोधक तथा दो वाक्यों को जोड़ने वाले समुच्चय बोधक शब्द जैसे ने, की, से, में इत्यादि अगर संज्ञा के बाद आते हैं तो अलग लिखे जाते हैं और सर्वनाम के साथ आते हैं तो साथ में। उदाहरण

अक्षरग्राम आधुनिक भारतीय स्थापत्य का अनुपम उदाहरण है। इसमें प्राचीन पारंपरिक शिल्प को भी समान महत्त्व दिया गया है। संस्थापकों ने पर्यटकों की सुविधा का ध्यान रखा है। हमने भी इसका लाभ उठाया, पूरी यात्रा में किसीको कोई कष्ट नहीं हुआ। केवल सुधा के पैरों में दर्द हुआ, जो उससे सहन नहीं हुआ। उसका दर्द बाँटने के लिए माँ थी। उसने, उसको गोद में उठा लिया।

अनुस्वार तथा पञ्चमाक्षर

पञ्चमाक्षरों के नियम का सही ज्ञान न होने से बहुधा लोग इनके आधे अक्षरों की जगह अक्सर 'न्' का ही गलत प्रयोग करते हैं जैसे 'पण्डित' के स्थान पर 'पन्डित', 'विण्डोज़' के स्थान पर 'विन्डोज़', 'चञ्चल' के स्थान पर 'चन्चल' आदि। ये अधिकतर अशुद्धियाँ 'ञ्' तथा 'ण्' के स्थान पर 'न्' के प्रयोग की होती हैं।

नियम: वर्णमाला के हर व्यञ्जन वर्ग के पहले चार वर्णों के पहले उस वर्ग का पाँचवा वर्ण आधा (हलन्त) होकर लगता है। अर्थात कवर्ग (क, ख, ग, घ, ङ) के पहले चार वर्णों से पहले आधा (ङ्), चवर्ग (च, छ, ज, झ, ञ) के पहले चार वर्णों से पहले आधा (ञ्), टवर्ग (ट, ठ, ड, ढ, ण) के पहले चार वर्णों से पहले आधा (ण्), तवर्ग (त, थ, द, ध, न) के पहले चार वर्णों से पहले आधा (न्) तथा पवर्ग (प, फ, ब, भ, म) के पहले चार वर्णों से पहले आधा (म्) आता है। उदाहरण

कवर्ग - पङ्कज, गङ्गा
चवर्ग - कुञ्जी, चञ्चल
टवर्ग - विण्डोज़, प्रिण्टर
तवर्ग - कुन्ती, शान्ति
पवर्ग - परम्परा, सम्भव

आधुनिक हिन्दी में पञ्चमाक्षरों के स्थान पर सरलता एवं सुविधा हेतु केवल अनुस्वार का प्रयोग भी स्वीकार्य माना गया है। जैसे

पञ्कज - पंकज, शान्ति - शांति, परम्परा - परंपरा।

परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि पुरानी पारम्परिक वर्तनियाँ गलत हैं, नयी अनुस्वार वाली वर्तनियों को उनका विकल्प स्वीकारा गया है, पुरानी वर्तनियाँ मूल रुप में अधिक शुद्ध हैं। पञ्चमाक्षर के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग देवनागरी की सुन्दरता को कम करता है तथा शब्द का उच्चारण भी पूर्णतया शुद्ध नहीं रह पाता।

श्र और शृ

श्र तथा शृ भिन्न हैं। श्र में आधा श और र मिला हुआ है जैसे श्रम में। शृ में पूरे श में ऋ की मात्रा लगी है जैसे शृंखला या शृंगार में। अधिकतर सामान्य लेखन तथा कम्प्यूटर/इण्टरनेट पर श्रृंखला या श्रृंगार जैसे अशुद्ध प्रयोग देखने में आते हैं। श्रृ लिखने पर देखा जा सकता है कि इसमें आधा श् +‍ र + ऋ की मात्रा है जो सही नहीं हैं क्योंकि शृंगार और शृंखला में र कहीं नहीं होता। यह अशुद्धि इसलिए होती है क्योंकि पारंपरिक लेखन में श के साथ ऋ जुड़ने पर जो आकार बनता था वह अधिकतर यूनिकोड फॉण्टों में प्रदर्शित नहीं होता। शृ, आदि श से बनने वाले संयुक्त वर्णों को संस्कृत २००३ नामक यूनिकोड फॉण्ट सही तरीके से प्रदर्शित करता है। उस आकार में श में ऋ जोड़ने पर प्रश्न वाले श की तरह श आधा दिखाई देता है और नीचे ऋ की मात्रा जुड़ती है, इसमें अतिरिक्त आधा र नहीं होता।

श्र = श् + र् + अ जबकि शृ = श् + ऋ

"श्रृ" लिखना गलत है, क्योंकि श्रृ = श् + र् + ऋ = श् + रृ

रृ का हिन्दी या संस्कृत में प्रयोग नहीं होता।

हिन्दी में लिखते हुए की जाने वाली अन्य सामान्य गलतियाँ यहाँ पड़ें

Common spelling mistakes in Hindi grammar

Should I use कि or की? Understanding difference between कि and की is a common grammatical mistake when writing in Hindi. These two are NOT interchangeable. Following is the difference between कि and की

1. कि is same as ‘that’ and की is same as ‘of’.
2. कि is same as conjunction and की is same as postposition.

For example, रामेश्वरम तट पर भगवान श्री राम जी ने हनुमान जी से कहा कि वह देवादिदेव शिव जी के भक्त हैं और भोलेनाथ की पूजा करते हैं।

In this example, कि connects the two sentences "रामेश्वरम तट पर भगवान श्री राम जी ने हनुमान जी से कहा" and "वह देवादिदेव शिव जी के भक्त हैं और भोलेनाथ की पूजा करते हैं।". Whereas की is used to show relationship/connection like in our example it shows that God Shri Ram ji is Devadidev Shiv ji's devotee.

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